गुरुवार, 16 जनवरी 2014

पिता : एक पर्वत

पिता। एक शब्द, एक रिश्ता और परिवार के लिए पूरी कायनात। में कोई लेखक नहीं हूँ जो बड़ी ख़ूबसूरती से इस रिश्ते पर जज्बाती लेखनी लिख दे परन्तु अपनी भावनाओं को इजहार करने की जब ठान ही चुका हूँ तो कुछ भी हो शब्दों की बाहें तो मरोड़ेंगे और उनसे उछल कूद भी कराएँगे, कुछ परिणाम भी लायेंगे। सच कहूँ तो जब भी पिता शब्द कहीं लिखा मिलता है या जहन में आता है, तो पूरा का पूरा भावनाओं का समंदर दिल में उमड़ पड़ता है। चूंकि मैंने अपने पिता को 13 साल पहले ही खो दिया तो मुझे उनके होने और ना होने के अंतर के बारे में गहराई के निम्नतम स्तर तक पता है। शायद कोई भी गहराई मेरे दर्द की गहराई के आगे कम है। किसी इंसान को अपने पिता को खोना न पड़े, ये मेरी दिल से दुआ रहती है। कहते हैं कि वक़्त सारे घाव भर देता है लेकिन पिता के खोने का घाव आज भी 13 साल बाद भी हरा है, गाहे बगाहे ये आँखों के माध्यम से रिसता भी है। उनके जाने से मेरे ह्रदय में उत्पन्न शून्य मेरी संतान भी पूरी तरह भर नहीं पाई। हां आजकल मेरे हाव भाव, चाल ढाल, बोलने के तरीके में अपने पिता का अक्स नज़र आने लगा है या यूँ कहें के मैं खुद अपने पिता को मुझमें ही कही ढूढ़ रहा हूँ। अपने काम के तरीके को उनके नजरिये से देखता हूँ, अब समझ में आ रहा है कि क्यों बाप, बाप ही होता है। सही बात तो यही है कि हर इंसान अपने पिता की प्रतिछाया ही होता है।

मुझे आज तक समझ नहीं आया कि क्यों शायरों, गीतकारों, कवियों ने माँ के गुणगान के लिए तो ग्रन्थ रच दिए, परन्तु पिता पर अधिकांशतः लिखा नहीं गया। शायद उनकी रचनाओं को माँ के आँचल की ओट और पाठकों की सहानुभूति मिल गई। ये बिना जोखिम का लेखन था। पिता पर लिखने के लिए सबसे पहला शब्द मेरे दिमाग में आता है " पर्वत " । सभी बाहरी जोखिमों से सुरक्षा, सभी दुःख-दर्द अपने भीतर रखने की क्षमता, पूरे परिवार को आश्रय पिता नाम का पर्वत ही दे सकता है। पूरे परिवार की लालन पालन की जरूरतें, खुद पुरानी वस्तुओं से काम चलाकर औलाद के लिए नया सामान, दुःख में पत्नी के आंसुओं से पार जाकर संयम के अस्त्र से स्तिथि का सामना, महँगी शिक्षा पद्धति के दौर में भारी भरकम फीस और तथाकथित डोनेशन, बीमारी में मुंहमांगी दाम वाली दवाइयां और आज के इस भयावह मंज़र में अपने कर्तव्यपथ पर बल्कि अग्निपथ पर अडिग चलते रहने वाले पिता के बारे में पर्वत शब्द भी छोटा है। पिता ग़म और दुःख पीते हैं और परिवार की खुशी से अपना पेट भरते हैं। घर की एक एक ईंट में, खाने के एक एक निवाले में पिता के खून पसीने को महसूस किया जा सकता है। माँ 9 महीने पेट में पालती है परन्तु पिता तो सारे जीवन के लिए उत्तरदायी होते हैं। कंस के कारागार से निकालकर कृष्ण को टोकरी में रखकर नदी पार करने वाला पिता ही था। कौशल्या माता राम के वियोग में तड़प रही थीं परन्तु दशरथ जी ने तो प्राण ही त्याग दिये।  इंसान छोटी समस्या में " ओ माँ " बोलता है परन्तु बड़ी मुसीबत में घिरा हो तो " बाप रे " मतलब पिता को ही याद करता है।
मैंने बहुत दुनिया देख ली, बहुत अनुभव ले लिए, बहुत संपत्ति बनाई है, परन्तु मुझे अपने पिता से जुड़ी हर चीज से ज्यादा प्यार है बनिस्पत मेरी बनाई चीज के।  वो मेरी सांस में है, रूह में है, दूर होकर और भी करीब है, बल्कि अब तो खुदा के माफिक हर कहीं है।
                                                                                         " श्री लाल राठी "

कविता facebook से साभार। 

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