शनिवार, 28 मार्च 2015

Blogger for Jagjit Singh & Gulzar

कला या कलाकार के लिए कोई सीमा या बॉर्डर नहीं होती।  वो तो सार्वभौमिक होते हैं।  कोई भी देश हो, संस्कृति हो, खान पान हो, काले या गोरे हो, कला सबके लिए भगवान के प्रसाद की तरह होती है।  एक जुमला है कि ईश्वर खुद सब जगह हो नहीं सकता अतः उसने माँ को बनाया।  ये शब्द माँ के सम्मान में हैं।  लेकिन ईश्वर का रूप यहीं समाप्त नही होता बल्कि प्रकृति जिसमें पेड़ पौधे, रंग बिरंगे फूल व् पशु पक्षी, नदी तालाब, ऋतुएँ, सतरंगी इन्द्रधनुष और इन सबसे ऊपर कला, इन सबमे भगवान की झलक देखने को मिलती है अगर आपके पास वो दृष्टि है तो ।  कला से अर्थ मेरा उस नैसर्गिक गुण से है जो सामान्यजन में देखने को नहीं मिलता।  मुझे किसी बुजुर्ग ने बताया था कि जिन लोगों में नैसर्गिक कला अर्थात गायन, नृत्य, वादन, चित्रकारी, अभिनय, कविता लेखन इत्यादि के गुण होते हैं उन्हें स्वयं ईश्वर अपने हाथों से बना के भेजता है और उन्हें ही हम कलाकार कहते हैं।  ये गुण वो होते हैं जिन्हे चमकाया जा सकता है परन्तु किसी इंसान में भरा नहीं जा सकता। 
कलाकार घटनाओं और स्थितियों को जिस दृष्टिकोण से देखता है वो दूसरों से अलग होता है।  वो उसमे छुपे निहितार्थ को देखता है।  छोटी से छोटी सकारात्मकता उन्हें नज़र आ जाती है और नकारात्मकता से वो प्राकृतिक रूप से ही दूर रहते हैं।  संवेदना का स्तर भी उनमे सामान्यजन से ज्यादा होता है।  

अब मुद्दे पर आता हूँ।  जगजीत सिंह जी के बारे में मैं दुसरे ब्लॉग में लिख चुका हूँ।  उनके बारे में शरीर के एक रोम जितना भी नहीं जानता परन्तु जो महसूस किया वो लिखा है www.jagjitandgulzar.blogspot.com के शुरुआती अध्यायों में।  गुलज़ार साब के प्रति मेरा आकर्षण बाद में हुआ उनकी आज़ाद और आसान शैली की वजह से। सो बचपन से ही जगजीत सिंह के ग़ज़ल गायन और बड़े बड़े फ़नकार शायरों को सुनने की वजह से दृष्टिकोण तो मेरा कुछ व्यापक हो ही गया।  उनकी ग़ज़लें रूह को छूती हैं और उसमे से सारा मैल निकाल लती हैं जाहिर है कि उन्होंने मेरी रूह को भी धीरे धीरे पॉलिश कर दिया।  दुनिया को देखने का मेरा तरीका बदल गया और जो भी परिवर्तन हुआ सकारात्मक हुआ।  टेक्नोलॉजी के विस्तार ने फिर इंटरनेट का विकास किया। लोगों को जरिया मिला कलाकारों के बारे में जानने का और उन्हें सुनने व् देखने का।  गूगल का धन्यवाद कि उसने ब्लॉग के जरिये सब को लिखने का मौका दिया और पूरी दुनिया तक अपनी आवाज़ पहुचाने का प्लेटफार्म भी।  

अतः मैंने भी निश्चय किया कि जिस फ़नकार को बचपन से सुनता आ रहा हूँ जो मेरी ज़िन्दगी में अदृश्य रूप में हमेशा मेरे साथ है उनकी ग़ज़लों को मैं हिंदी में पूरे भारत और पूरी दुनिया में बसे भारतीयों तक पहुंचाउंगा। साथ ही साथ मेरे ब्लॉग में ग़ज़ल के नीचे उसे लिखने वाले शायर का भी नाम होता है जिससे दुनिया को पता चले कि किसने ये ग़ज़ल लिखी।  गुलज़ार साब की कवितायेँ जो लोग पढ़ नहीं पाते क्यूंकि किताबें महँगी है उनके लिए गुलज़ार साब के गाने, शायरी, ग़ज़ल, नज़्म, कवितायेँ भी रखता हूँ।  बहुत मेहनत करनी पड़ती है। आँखों पर जोर पड़ता है।  सर दुखता है।  काम से समय निकालना पड़ता है।  लेकिन जब आज मेरा ब्लॉग जब 5 साल से ज्यादा का हो गया है। 215000 page view मिल चुके हैं। अब तो रोज 150 विजिट्स हो रही हैं।  मेरे facebook page ( jagjit & gulzar ) जो कि इसी ब्लॉग से जुड़ा है को 12200 followers का कारवां भी मिल चुका है।  मेरे ब्लॉग को भारत, पाक, रशिया, लंदन, यूक्रैन, अमेरिका, जर्मनी, uae इत्यादि ( लगभग हर देश ) में लोग देखते हैं तो लगता है कि मैं भी कला और कलाकारों के लिए कुछ कर पा रहा हूँ।  एक संतुष्टि मिलती है।  पूरी दुनिया में किसी को जगजीत जी या गुलज़ार की कोई हिट ग़ज़ल हिंदी में चाहिए तो मेरा ब्लॉग हाजिर हो जाता है।  उस पर गूगल ने विज्ञापन भी दिखाने शुरू किये इस ब्लॉग पर, तो गूगल का भी आभार।  मेरी मेहनत भविष्य में रंग लाएगी और लोगों को ग़ज़ल और साहित्य से जोड़ेगी यही सोचकर में पोस्ट डालता जाता हूँ अपने कलाकार होने का फ़र्ज़ अदा किये जाता हूँ।  









गुरुवार, 16 जनवरी 2014

पिता : एक पर्वत

पिता। एक शब्द, एक रिश्ता और परिवार के लिए पूरी कायनात। में कोई लेखक नहीं हूँ जो बड़ी ख़ूबसूरती से इस रिश्ते पर जज्बाती लेखनी लिख दे परन्तु अपनी भावनाओं को इजहार करने की जब ठान ही चुका हूँ तो कुछ भी हो शब्दों की बाहें तो मरोड़ेंगे और उनसे उछल कूद भी कराएँगे, कुछ परिणाम भी लायेंगे। सच कहूँ तो जब भी पिता शब्द कहीं लिखा मिलता है या जहन में आता है, तो पूरा का पूरा भावनाओं का समंदर दिल में उमड़ पड़ता है। चूंकि मैंने अपने पिता को 13 साल पहले ही खो दिया तो मुझे उनके होने और ना होने के अंतर के बारे में गहराई के निम्नतम स्तर तक पता है। शायद कोई भी गहराई मेरे दर्द की गहराई के आगे कम है। किसी इंसान को अपने पिता को खोना न पड़े, ये मेरी दिल से दुआ रहती है। कहते हैं कि वक़्त सारे घाव भर देता है लेकिन पिता के खोने का घाव आज भी 13 साल बाद भी हरा है, गाहे बगाहे ये आँखों के माध्यम से रिसता भी है। उनके जाने से मेरे ह्रदय में उत्पन्न शून्य मेरी संतान भी पूरी तरह भर नहीं पाई। हां आजकल मेरे हाव भाव, चाल ढाल, बोलने के तरीके में अपने पिता का अक्स नज़र आने लगा है या यूँ कहें के मैं खुद अपने पिता को मुझमें ही कही ढूढ़ रहा हूँ। अपने काम के तरीके को उनके नजरिये से देखता हूँ, अब समझ में आ रहा है कि क्यों बाप, बाप ही होता है। सही बात तो यही है कि हर इंसान अपने पिता की प्रतिछाया ही होता है।

मुझे आज तक समझ नहीं आया कि क्यों शायरों, गीतकारों, कवियों ने माँ के गुणगान के लिए तो ग्रन्थ रच दिए, परन्तु पिता पर अधिकांशतः लिखा नहीं गया। शायद उनकी रचनाओं को माँ के आँचल की ओट और पाठकों की सहानुभूति मिल गई। ये बिना जोखिम का लेखन था। पिता पर लिखने के लिए सबसे पहला शब्द मेरे दिमाग में आता है " पर्वत " । सभी बाहरी जोखिमों से सुरक्षा, सभी दुःख-दर्द अपने भीतर रखने की क्षमता, पूरे परिवार को आश्रय पिता नाम का पर्वत ही दे सकता है। पूरे परिवार की लालन पालन की जरूरतें, खुद पुरानी वस्तुओं से काम चलाकर औलाद के लिए नया सामान, दुःख में पत्नी के आंसुओं से पार जाकर संयम के अस्त्र से स्तिथि का सामना, महँगी शिक्षा पद्धति के दौर में भारी भरकम फीस और तथाकथित डोनेशन, बीमारी में मुंहमांगी दाम वाली दवाइयां और आज के इस भयावह मंज़र में अपने कर्तव्यपथ पर बल्कि अग्निपथ पर अडिग चलते रहने वाले पिता के बारे में पर्वत शब्द भी छोटा है। पिता ग़म और दुःख पीते हैं और परिवार की खुशी से अपना पेट भरते हैं। घर की एक एक ईंट में, खाने के एक एक निवाले में पिता के खून पसीने को महसूस किया जा सकता है। माँ 9 महीने पेट में पालती है परन्तु पिता तो सारे जीवन के लिए उत्तरदायी होते हैं। कंस के कारागार से निकालकर कृष्ण को टोकरी में रखकर नदी पार करने वाला पिता ही था। कौशल्या माता राम के वियोग में तड़प रही थीं परन्तु दशरथ जी ने तो प्राण ही त्याग दिये।  इंसान छोटी समस्या में " ओ माँ " बोलता है परन्तु बड़ी मुसीबत में घिरा हो तो " बाप रे " मतलब पिता को ही याद करता है।
मैंने बहुत दुनिया देख ली, बहुत अनुभव ले लिए, बहुत संपत्ति बनाई है, परन्तु मुझे अपने पिता से जुड़ी हर चीज से ज्यादा प्यार है बनिस्पत मेरी बनाई चीज के।  वो मेरी सांस में है, रूह में है, दूर होकर और भी करीब है, बल्कि अब तो खुदा के माफिक हर कहीं है।
                                                                                         " श्री लाल राठी "

कविता facebook से साभार। 

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

आई रे आई रे ख़ुशी.....

आज मैंने एक ऐसा विषय लिखने के लिए चुन लिया है, जिसके लिए मैं नहीं जानता कि में उपयुक्त हूँ कि नहीं परन्तु अपने दैनिक अनुभवों के माध्यम से अपने विचार अवश्य साझा कर सकता हूँ जो कि हमारी ज़िन्दगी को आसान बनाने के काम आये।  मेरे हिसाब से हम सबके के कार्यों की एक ही मंजिल है कि किस तरह इनके फलस्वरूप ख़ुशी प्राप्त की जा सके। ख़ुशी को, मनपसंद काम करके या पैसे कमाके या कुछ खाके, सोके, कुछ भी जो हमारे मन का हो, करके प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।  कुछ इसे गाड़ी, बंगला और शानौशौकत में ढूंढते हैं, तो कुछ वैराग्य में।
लक्ष्य छोटे या बड़े हो सकते है, परन्तु उन्हें प्राप्त करने पर होने वाली ख़ुशी छोटी या बड़ी नहीं होती, वो तो सिर्फ ख़ुशी होती है, सही बात तो ये है कि ख़ुशी एक ऐसा अहसास है जिसे बढ़ाया या घटाया नहीं जा सकता बल्कि बांटने पर कई गुना किया जा सकता है। सही मायने में इतने युगों के बाद भी हम इसे प्राप्त करने का सही तरीका नहीं ढूंढ पाये है।  पैसा कमाके, शादी करके, बड़े लक्ष्य हासिल करके भी, खानाबदोश होके भी, बल्कि भजन करके भी सच्ची ख़ुशी हमारे लिए दूर की कौड़ी ही है, क्योंकि हम एक मर्म की बात समझ ही नहीं सके कि ये तो भीतरी अहसास है जो कि भीतर से ही निकलेगा। फिर भी कुछ बिंदु है जिन पर गौर करके हम इसका स्तर बढ़ा सकते है :

धन्यवाद - तमाम विडम्बनाओं के बाद भी हम सब के रहने के लिए ये सारी दुनिया एक सुन्दर जगह है।  हमें जीवन जीने के लिए जो साधन जरूरी है, मुहैया है।  हम अगर उपलब्ध साधनों के लिए धन्यवाद करें, किसी के प्रति कृतघ्य होकर धन्यवाद करें तो हमारा ख़ुशी का स्तर बढ़ सकता है।  फर्ज करें कि हमारे पास खाने के लिए अच्छा खाना है, जो कि बहुतों के पास नहीं है।  पीने के लिए साफ़ पानी, रहने के लिए घर, सोने के लिए बिस्तर, चलने के लिए वाहन, वातानुकूलन के साधन, मनोरंजन के साधन और सैकड़ों रोजमर्रा की ज़िन्दगी में काम आने वाले साधन है जिनसे दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा वंचित है।  अगर हम इन उपलब्ध साधनों के लिए ऊपर वाले का शुक्रिया करें तो हमारा ख़ुशी का स्तर निश्चित बढ़ेगा।

सकारात्मकता : दुनिया में सिर्फ दो मनोभावों का अस्तित्व है सकारात्मक या फिर नकारात्मक।  जहाँ सकारात्मकता हमारी ऊर्जा को बढाती है वही नकारात्मकता इसे घटाने का कार्य करती है।  ज़िन्दगी में संघर्ष, दुःख, मुसीबतें, बीमारी इत्यादि समस्याएं आनी ही है, परन्तु इन सबके पार पाकर ज्यादा ख़ुशी वो ही हासिल कर पाते है जो अपना नजरिया सकारात्मक रखे।  कई शोध बताते है कि सकारात्मक लोग कम बीमार होते हैं, ज्यादा जीते हैं, उनके मित्र ज्यादा होते हैं और दूसरों के लिए प्रेरणा स्त्रोत भी होते हैं। ऐसे लोगों के लिए सारी दुनिया एक आशियाना है जहाँ हर कदम पर मित्र, सहयोगी मिल ही जाते हैं।  वो पुराने छूटे हुए रिश्तों, मित्रों और पुराने दिनों के लिए दुखी नहीं होते, बल्कि नए रिश्ते गढ़ते हैं, नए मित्र बनाते हैं और अपना आज अपने बीते कल से भी बेहतर बनाते हैं। सकारात्मकता के घोड़े पर सवार वो मैदान मार ही लेते हैं और दूसरों की सफलता का भी जश्न मनाते हैं। ऐसे लोग सबसे प्रेम करते हैं, और प्रेम बांटते भी हैं।  ये लोग जानते हैं कि कोई भी हमें अपनी गाड़ी, कपड़े, घर के लिए याद नहीं करेगा बल्कि हमें हमारे व्यवहार के लिए याद किया जायेगा।

व्यवहारिक दृष्टिकोण : मेरे एक मित्र ने कहा कि ज़िन्दगी का मतलब झेलना और बर्दाश्त करना ही है।  हमारा परिस्थितियों पर, अपने बॉस पर, सरकार पर, महंगाई पर बल्कि अपने परिवार पर किसी पर जोर नहीं चलता और हम कुछ भी बदल नहीं सकते, ये हमें सहन करना होगा।  आम दृष्टिकोण के तहत ये बात सत्य भी है।  लेकिन ज़िन्दगी यही सब तो नहीं है, हम परिपक्व और व्यवहारिक होंगे तो कुछ तब्दीलियां तो करेंगे ही। मसलन किसी के सामने बदबूदार खाना रखें फिर भी वो खा तो नहीं लेगा चाहे कितना ही भूखा क्यूँ न हो ?कपड़े गंदे होने पर भी कोई सामान्य व्यक्ति पहन तो नहीं लेगा ? अतः जो लोग हमारे लिए नकारात्मक सिद्ध हो रहे हैं, या जिनके रहने से हमारी ज़िन्दगी आसान न रहे तो उनसे दूरी बनाना ही बेहतर है, क्यूंकि हमें उन लोगों में ज्यादा निवेश करना है जो हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है।  अपनी ऊर्जा, अपना समय, अपना प्यार लुटाने के लिए ये दुनिया छोटी कतई नहीं है।  हम खुश तभी रह पाएंगे जब हम जैसे और हमारे जैसी आदत वाले लोग हमारे आस पास रहे।  हम सबको खुश रख नहीं सकते परन्तु जिन्हे हम खुश रखना चाहते है उसमें कोई कमी भी नहीं रहनी चाहिए, आख़िरकार हम भी तभी खुश रह पाएंगे ।

उपरोक्त बातें मेरा दृष्टिकोण ही है, ये कोई स्थापित सत्य नहीं है परन्तु मैंने जिन चीजों की कमी समाज में महसूस की, वो ही यहाँ लिखी है।  वैसे खुश रहने का कोई फार्मूला तो हो ही नहीं सकता।  युग बदले, समय बदला परन्तु इंसान की बुनियादी आवश्यकताएं प्यार और ख़ुशी ही है, उन्हें वो ढूँढता रहेगा अपने अपने समय और कालखंड के बदले तरीकों से।

                                                                                            " श्री लाल राठी "

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

शुभारम्भ

मित्रों,
       सभी जानते हैं कि मेरा ब्लॉग www.jagjitandgulzar.blogspot.com पिछले २ महीने से net पर उपलब्ध है, उसमें मैं बेहतरीन शायरी, ग़ज़ल, कविता इत्यादि सब के सम्मुख रखने का प्रयास कर रहा हूँ, परन्तु पिछले कुछ समय से मुझे लग रहा था कि साहित्य के अतिरिक्त भी जो विचार मेरे दिमाग में कौंध रहे है उन्हें में अपने दुसरे ब्लॉग में आप सभी के सामने प्रस्तुत करूँ, समाज में इतना कुछ घटित हो रहा है जिसे अनदेखा करके नहीं रहा जा सकता, उस पर मैं अपना दृष्टिकोण रखना चाहता हूँ, ये मेरे दिल की बात है जो हो सकता है आपकी दिल की भी हो। अभी चल रहा दौर परिवर्तन का दौर है, वक़्त भी शायद इतना तेज नहीं चल रहा जितना कि परिवर्तन।
       इस दौर में हमने विकास बहुत किया है, दुनिया एक नए रूप में किसी दुल्हन की तरह सुन्दर भी लग रही है परन्तु शायद उस विकास और सुंदरता की कीमत हमने प्राकृतिक, मानवीय और संवेदना के क्षरण के रूप में भी चुकाई है।  हमने उपलब्धियां बड़ी बड़ी हासिल की है, परन्तु ख़ुशी और स्वाभाविकता कहीं खो सी गयी है। कृत्रिम खुशियां खोजते खोजते हम छोटी-२ खुशियों को जाने कब अपनी जेब से गिरा चुके हैं, ये आभास भी नहीं कर पा रहे। वैसे कुछ सुखद परिवर्तन भी हुए है, ज़िन्दगी पहले की तुलना में बहुत आसान भी हुई है।
       इसी उतार चढाव भरे रस्ते पर ज़िन्दगी के सवाल - जवाब को टटोलने की कोशिश हम यहाँ करेंगे। ये तय है कि यहाँ कुछ पाना ही है, खोने के लिए यहाँ कुछ भी नहीं है। आज के लिए इतना ही। अगली बार कुछ टटोलने के लिए मिलेंगे।

                                                                                                                "  श्री लाल राठी "